हिन्दू धर्म में अनेक ग्रंथों का वर्णन किया गया है। वेदों , पुराण, उपनिषद रामायण, महाभारत आदि ये सभी हमारे हिन्दू धर्म के स्तम्भ रूप हैं। ये सभी हमारे धर्म का परिचालक कर, जन को अनेक शिक्षायें प्रदान करते हैं। इसी के मध्य वेद व्यास जी द्वारा रचित महाभारत के स्मरण से जन को अनेकों प्रेरणाएं मिलती हैं , जो की कुछ इस प्रकार हैं।
रणनीति से युक्त होना चाहिए जीवन—
किसी भी कार्य को पूर्ण करने हेतु हमें सर्वप्रथम एक कुशल रणनीति व् योजना की आवश्यकता होती है। जो व्यक्ति अपने जीवन में कार्यों को रणनीति के आधारभूत होकर करने का प्रयास करते है, उन्हें निश्चित ही सफलता की प्राप्ति होती है। किन्तु जो व्यक्ति योजना हीन होकर कार्य करने का प्रयास करता है, उसे हमेशा अपने जीवन में अत्यंत संघर्ष का सामना करना पड़ता है।
जिस प्रकार महाभारत युद्ध में एक ओर कौरवों के पास 24 अक्षौहिणी नारायणी सेना थी, तो वहीं दूसरी ओर कुंती पुत्रों के पास सिर्फ भगवान् श्री कृष्ण के द्वारा
बनाई गयी कुशल नीति थी जिसके आधार पर पांडवों ने महाभारत के विशाल युद्ध में विजय प्राप्त की।
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जीवन को गढ़ने का कार्य करती है संगति—
जिस प्रकार टोकरी में रखे हुए सेब में अगर एक सेब खराब होता है, तो वह सभी सेबों को भी खराब कर देता है, उसी प्रकार हमारी संगति अगर बुरी है या हम गलत मित्रों में बैठते है तो हम उनके साथ गलत राह पर चलकर कुकर्म का मार्ग अपना लेते हैं।
जिस प्रकार महाभारत में एक ओर कौरवों के पास थी शकुनि मामा की कुसंगति, जिससे सामने वाले की बुद्धि ही भ्रष्ट हो जाये, तो वहीं दूसरी ओर पांडवों के पास थी श्री कृष्ण जैसे कुशल रणनीतिज्ञ की सुसंगति। इसी कारण पांडवों ने सदैव धर्म के मार्ग को ही अपनी मंजिल समझा। इसके विपरीत कौरव अपने मामा की नीतियों में ही भ्रमित होते रहे।
अपूर्ण ज्ञान है जीवन के लिए हानिकारक—
किसी भी व्यक्ति, वस्तु , शिक्षा आदि का अधूरा ज्ञान जीवन के लिए हानिकारक प्रतीत होता है। जब आप किसी भी मुसीबत में होते हैं, तब आप सिर्फ उससे निकलने का प्रयास करते हैं, किन्तु उस समय आपको उसका अधूरा ज्ञान होता है, तब आप कभी कभी उस मुसीबत से निकलने की बजाय आप उसमे और भी बुरी तरह फंस जाते हैं जिसके कारण आपको उसके विपरीत बुरे प्रभावों का सामना करना पड़ सकता है।
जिस प्रकार महाभारत में अभिमन्यु ने अपनी माता के गर्भ में, अपने पिता के द्वारा बताये जाए रहे चक्रव्यूह को तोड़ने का उपाय सुन लिया था, किन्तु माता के सो जाने के कारण वे पिता के द्वारा बताए गए चक्रव्यूह से निकलने का उपाय नहीं जान सके जिसके कारण उन्हें महाभारत के युद्ध में अपनी मृत्यु का सामना करना पड़ा।
अपने साथी की सही परख होनी चाहिए—
हमें अपने साथ खड़े सभी व्यक्तियों की, साथियों की व् मित्रों की सही परख होनी चाहिए। कौन सा व्यक्ति , साथी व मित्र हमारे बारे में क्या सोचता है, हमारी कौन सी बात से जलता है या उसे बुरी लगती है, हम अगर नहीं जानते होंगे तो वो हमारे लिए घातक प्रतीत हो सकता है।
जिस प्रकार महाभारत में कई ऐसे महानयोद्धा थे जो शारीरिक रूप से किसी और पक्ष में थे व मानसिक रूप से किसीऔर पक्ष में। गंगा पुत्र भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य व महात्मा विदुर, ये सभी कौरवों के पक्ष में होते हुए भी पांडवों का साथ दे रहे थे। इसी प्रकार युयुत्सु व् महाराज शल्य ने भी अपने पक्ष को छोड़ दूसरे पक्ष को अपनाकर, विश्वाघाती का धब्बा बनना मुनासिफ समझा।
वचनों का वार, किसी तलवार के वार से अधिक घातक होता है—
कहते हैं कि जो मरता नहीं तलवार की धार से, बैठा है मृत्यु शय्या पर कुछ वचनों के वार से। इसी प्रकार तलवार तो सिर्फ मानव को शारीरिक रूप से पीड़ा देती है, किन्तु किसी के कुवचन सीधे हमारी मानसिकता को स्पर्शकर, हमें आंतरिक व् शारीरिक रूप से प्रताड़ित करते है जिसके चलते हम इस जहाँ में होते हुए भी इस जहाँ के नहीं रह जाते।
जिस प्रकार महाभारत में पांडवों की अर्धांगिनी महारानी द्रौपदी अगर अपनी मुख वाणी से दुर्योधन के लिए कुवचनो का प्रयोग नहीं करती तो शायद महाभारत जैसा विशाल व् महा युद्ध जन्म ही नहीं लेता, इसी प्रकार पूरे महाभारत युग में शकुनि मामा ने सिर्फ अपने तीखे व कुवचनों का प्रयोग करके ही जीवन यापन किया जिसके चलते उन्हें भी अपने कुवचनों का भार अपनी मृत्यु से चुकाना पड़ा।
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जीवन में कुकृत्यों से रहे दूर—
जीवन में सभी प्रकार के कुकृत्यों से दूर रहना चाहिए, जैसे जुआं, सट्टा, मदिरापान आदि। इन सभी बुरी आदतों से दूर रहे वरना जीवन में अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। इनके द्वारा जीवन के मान-सम्मान, प्रतिष्ठा व प्रसिद्धि पर भी प्रभाव पड़ता है। ये कृत्य आपको सफलता के चरमोत्कर्ष से सीधे नीचे गिराने का कार्य करते हैं।
जिस प्रकार महाभारत में मामा शकुनि ने अपनी चतुर चाल से पाण्डु पुत्रों को चौसर के खेल में हराकर उनसे उनका पूरा राज्य छीन लिया व उन्हें 13 वर्षों का वनवास एवं 1 वर्ष का अज्ञातवास उपहार स्वरुप स्वीकार करना पड़ा था, तथा उस चौसर के खेल में पाण्डु पुत्रों ने अपनी पत्नी द्रौपदी के रूप में अपने पूर्वजों द्वारा कमाई गयी मान-प्रतिष्ठा को दाव पर लगाकर पूर्वजों को शर्मसार कर दिया जिसके कारण उन्हें अपनी मान-प्रतिष्ठा, घर, राज्य अर्थात सभी के वियोग में जीवन व्यतीत करना पड़ा।
सत्य के मार्ग से ही, सफलता की प्राप्ति है—
महाभारत के युद्ध में एक ओर धर्म के उपासक धर्मराज युधिष्ठिर के पक्ष में धर्म व सत्य प्रधान था, तो वहीं दूसरी ओर कौरवों की सेना में सभी महान योद्धाओं के साथ-साथ अधर्म की प्रधानता थी। इसीलिए भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी नारायणी सेना को कौरवों को देकर, सत्य व् धर्म के आधीन पांडवों का साथ देकर उन्हें विजय प्राप्ति में सहायता की।
सभी बाधाओं का अंतिम मार्ग है संघर्ष अथवा लड़ाई—
जिंदगी एक त्यौहार है, उसे मनाना चाहिए, यूँ संघर्ष कर उसे काटने योग्य नहीं बनाना चाहिए। जीवन में आने वाली सभी बाधाओं का हँसकर सामना करना चाहिए, उससे उलझना नहीं चाहिए। किन्तु अगर उस बाधा को सुलझाने का कोई उपाय नहीं है तो हमें उस बाधा से लड़ने का हर संभव प्रयास करना चाहिए।
जिस प्रकार महाभारत में पाण्डु पुत्र अपने भाई कौरवों से युद्ध कर अपने ही राज्य का सर्वनाश नहीं करना चाहते थे किन्तु श्री कृष्ण ने यह बात उन्हें अच्छे से समझायी थी कि हम सब निमित्त मात्र हैं। लड़ना, न लड़ना, ये निश्चय सब ईश्वर करता है, इसलिए आपको शस्त्र उठाकर ये नहीं सोचना चाहिए कि हमारे सामने कौंन खड़ा है। हमें सिर्फ सत्य को सर्वोपरि मान अपना कर्म करना चाहिए।
स्वयं को परिस्थिति के अनुसार विनिमयित करें, अन्यथा ये समाज आपको विनिमयित कर देगा—
महाभारत में जिस प्रकार कर्ण की उदारता, दानवीरता के स्वाभाव का सम्पूर्ण सृष्टि ने लाभ उठाया। उसे पता था कि इस युद्ध में परास्त करने वाला कोई भी योद्धा मौजूद नहीं है, जब तक उसके शरीर पर कवच और कुण्डल पर विराजमान है, किन्तु उसने अपने स्वभाव के कारण इंद्र देव को उन्हें दान में दे दिया। इसलिए हमें परिस्थिति के अनुसार अपने आप को क्रूर व दयालु बनाना चाहिए जिसके चलते कोई हमारे स्वाभाव का लाभ न उठा सके।
भावना के स्तम्भ पर टिकी है शिक्षा की नींव—
सूर्यपुत्र कर्ण निसंदेह एक प्रबल महान योद्धा थे किन्तु अंगराज कर्ण ने अपनी शिक्षा को प्रबल मानकर उसे सदैव समाज से अपने अपमान व तिरस्कार का बदला लेने के लिए लगा दिया, इसलिए उन्हें जो मान-सम्मान, प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए थी, वह जीवन भर प्राप्त नहीं हुई। इसलिए हमारे जीवन में हर कार्य पूर्ण करना यह विषय महत्वपूर्ण नहीं, वरन उसके पीछे आपके क्या भाव है, वहीं हमारे जीवन में हमारे कर्मों का आधार है।
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सम्मान व आदर के आधारभूत होते है मित्रों के सम्बन्ध—
महाभारत में पांडवों को भगवान् श्री कृष्ण का सानिध्य मित्रता के रूप में प्राप्त हुआ। इस प्रकार कौरवों में महारथी कर्ण ने अपने मित्र दुर्योधन का अंततः साथ निभाया। पांडवों ने तो भगवान् श्री कृष्ण का आदर स्वरुप उनकी आज्ञा का पालन किया, किन्तु दुर्योधन ने अपने मित्र कर्ण को एक प्रबल योद्धा के रूप में उसके आधार पर विशाल युद्ध को जीतने का प्रयास किया। इसलिए अगर दुर्योधन कर्ण की बात को युद्ध में ध्यान पूर्वक सुनता, तो युद्ध में उसे अपनी मृत्यु का सामना नहीं करना पड़ता।
जीवन में भावनाओं पर रखे नियंत्रण—
हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन तो थे ही, किन्तु वे अपने 100 पुत्रों के मोह में भी अंधे थे। वे पुत्रमोह में इस कदर लीन थे कि वो अपने जीवन में धर्म-अधर्म का भेद ही भूल गए थे। कह सकते हैं कि भावनायें मानव को आतंरिक रूप से कमजोर बना देती हैं जिससे वह धर्म-अधर्म, अच्छा-बुरा, सब में भेद करना ही भूल जाता है। उसकी निर्णय शक्ति शून्य हो जाती है।
शिक्षा हेतु जीवन में, जूनून का है अधिक महत्व—
अंगराज कर्ण व एकलव्य से हमें जीवन में शिक्षा के प्रति जूनून की प्रेरणा प्राप्त होती है। वे बिना गुरु के महान धनुर्धर की श्रेणी में गिने जाते है। इसका एकमात्र कारण उनका शिक्षा के प्रति जूनून व लगन थी।
जीवन में कर्मों की होनी चाहिए प्रधानता—
जीवन और मृत्यु के मध्य केवल कर्मों की कड़ी ही विद्यमान है, इसलिए हमें कभी भी अपने भविष्य को ईश्वर के सहारे नहीं छोड़ना चाहिए। हमें अपने दिन का पूर्णतः उपयोग कर कर्मों को करना चाहिए जिसके सहारे हम अपने भविष्य को प्रबल बना सकें।
षठदोष की अधिकता ही होती है मानव के अंत के कारण—
अहंकार, अभिमान, द्वेष, आलस्य, प्रमाद , ईर्ष्या आदि गुणों का जो भी व्यक्ति रसपान करता है, उसे अंततः असफलता की ही प्राप्ति होती है। महाभारत में पांडवों के पास जब अधिक धन सम्पदा थी और उनकी पत्नी द्रौपदी भी अप्सरा के सामान सुन्दर थी, इस घमंड के कारण उन्होंने 13 वर्षों का वनवास व 1 वर्ष का अज्ञातवास में अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा। इसीलिए समय सर्वश्रेष्ठ व् बलवान है।
संपत्ति एवं वस्तुओं की आसक्ति से परे होना चाहिए मानव जीवन—
जीवन में किसी भी वस्तु, संपत्ति आदि से कभी भी मोह व आसक्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इस धरा पर, जो भी धरा है, वह इस धरा पर, ऐसे ही धरा रह जायेगा। इस धरा पर हम खाली हाथ ही आये थे, और खाली हाथ ही जायेंगे। तो भगवान के द्वारा दिए गए जीवन में किसी वस्तु या संपत्ति से किस तरह की आसक्ति रख सकते है। मानव को सिर्फ ईश्वर में ही आसक्ति रखनी चाहिए, तभी उसके जीवन का मोल है, अन्यथा सब व्यर्थ है।
अपने ज्ञान का बोध व उसका उत्तम क्रियान्वयन—
शिक्षकगण के द्वारा दिए गए ज्ञान का अर्जन करना ही महत्वपूर्ण नहीं, वरन उस शिक्षा का आपने किस रूप में क्रियान्वयन किया है, यह महत्वपूर्ण है। सामान्यतः आज सभी को हर क्षेत्र की शिक्षा होती है, किन्तु वे सब अपनी शिक्षा को क्रियान्वयन नहीं कर पाते हैं क्योंकि कहीं न कहीं वे अपने विचारों को खुलकर बोल नहीं पाते व जो समझाना चाहते है, वो समझा नहीं पाते। ये क्रिया तभी संभव है जब आप अपने अर्जन किये हुए ज्ञान का बोध करे, चिंतन व् मनन करें, उसको सही दिशा में किस तरह प्रयोग करना है, उसका हर संभव प्रयास करेंगे।
कुकर्मों के फलस्वरूप दंड का भय अवश्य होना चाहिये—
न्याय व्यवस्था वहीं कारगर है जहाँ कठोर दंड निहित हो। जिस प्रकार धृतराष्ट्र के राज्य में उसके पुत्रों द्वारा धर्म का बुरी तरह से घोटा जा रहा था, किन्तु फिर भी उन्होंने इसके प्रति कोई भी दंड प्रक्रिया लागू नहीं की जिसके चलते इस महायुद्ध की रचना हुई।
सदा न्याय की रक्षा करना चाहिए—
गुरु द्रोणाचार्य ने कर्ण व एकलव्य को शिक्षा देने से इनकार करके उन पर जरूर अन्याय किया किन्तु इसके पीछे उनका भी कर्तव्य परायण होना निहित था। लेकिन इन दोनों ने ही सदा न्याय की मांग की जिसके चलते वे अर्जुन से भी अधिक महान धनुर्धन बने। इसी प्रकार हमें जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियों में भी न्याय का साथ नहीं छोड़ना चाहिये।
ज्यादा से ज्यादा ज्ञान का अर्जन ही मानव का उद्देश्य होना चाहिए—
ज्ञान का योजन ही जीवन में मानव को हर परिस्थिति से पार पाने हेतु सहायता करता है। हर व्यक्ति-वस्तु आदि के बारे में जानकारी होनी चाहिए जिससे हम हर परिस्थिति को समझने में सक्षम होंगे। कहते हैं कि अर्जन किया हुआ ज्ञान कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। भगवान श्री कृष्ण के बारे में बहुत कम लोग जानते थे, इसलिए इस महायुद्ध का आगाज कौरवों ने कर दिया, अन्यथा ये युध्द भगवान श्री कृष्ण की एक लीला थी।
भ्रमण करने का करें प्रयास, जीवन में यश की होगी प्राप्ति—
कई बार एक जगह से दूसरे स्थान पर जाने से भी कई लाभ की होते हैं, जैसे मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि, बाहरी जागत की परेशानियां जानने का मौका, लोगों की मानसिकता, आदि इन सबके साथ हम समाज के स्तर से जुड़ सकते है व उनके लाभ-हानि को जानकार जान कल्याण में सहायता कर सकते हैं। जिस प्रकार पांडवों ने अपने वनवास के समय खांडवप्रस्थ के लिए किया था।
संयम जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है—
आज मनुष्य किसी भी कार्य को करने में तत्पर रहता है तो वह ये अपेक्षा करता है कि उसका कार्य एक बार में ही पूर्ण हो जाये। किन्तु ये जीवन यथावत हमारे अनुसार नहीं, वरन ईश्वर की कृपा अनुसार वर्णित है। इसलिए हमें संयम का स्वादन कर निरंतर अपने कार्यों में प्रयासरत रहना चाहिए।
मन में डर व् चिंता दोनों ही मृत्यु के कारक है—
जिस व्यक्ति को अपने जीवन, व्यक्ति व वस्तु से आसक्ति है, उसके मन में चिंता, भय आदि भाव हमेशा मडराते रहेंगे जिसके चलते वो न तो अपने कार्य में लक्ष्यबद्ध होकर कार्य कर सकेगा, और न ही जीवन में सही मार्ग का चयन कर सकेगा जिसके कारण अंततः उसे मृत्यु का सामना करना ही पड़ता है। जीवन मिला है तो मृत्यु निश्चित है, इसलिए किसी भी चीज में आसक्ति प्रधानता होगी और वो आपको अंत के समीप ले जाकर खड़ा कर देगा।
जीवन में कर्मों को महत्वता दे, फल प्राप्ति हेतु स्मरण नहीं करना चाहिए—
कभी भी कोई कार्य करने हेतु निर्णय लेने के बाद, कभी भी दुबारा उसके परिणाम के बारे में नहीं सोचना चाहिए क्योंकि परिणाम के अधीन रहने वाला व्यक्ति न तो अपने वचनो पर टिकता है, और न ही वे जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं। वे जीवन में अपने निर्णय लेने में कभी भी सक्षम नहीं हो पाते।
जीवन में किये गए संकल्पों की पूर्ति हेतु अपना सर्वस्व लगा देना चाहिए—
गंगापुत्र भीष्म ने अपने जीवन को अधर्म की आग में प्रज्वलित कर की पूर्ति की। इससे यह सन्देश दिया कि जीवन के किसी भी पड़ाव में आपको अपने संकल्प को नहीं त्यागना चाहिए। ये आपकी वाणी को सुशोभित करता है कि आप जीवन में अपने संकल्पों के प्रति कितने सजग है।