स्वस्तिक संस्कृत के धातु के स्व-अस से निर्मित एक स्वर्णिम शब्द है जिसमें 'स्व' का अर्थ सुंदरता, श्रेष्ठता एवं सतोगुण से है, तो वहीं दूसरी ओर 'अस' धातु का अर्थ अस्तित्व, उपस्थिति से है। कुल मिलाकर जिसके अंदर स्व एवं अस का समावेश हो जाता है, वह स्वस्तिक है। जो व्यक्ति अपने अंदर श्रेष्ठता एवं सतोगुण के अस्तित्व को धारण कर लेता है, वह व्यक्ति स्वस्तिक के समान हो जाता है।
स्वस्तिक दो रेखाओं को काटती हुई आकृति जिसके चारों सिरे से बाहर की तरफ उभरती अन्य चार सिराओं वाली आकृति है जो अनेकों शुभ गुणों एवं गूढ़ रहस्य को अपने अंदर समाहित किए हैं। यह अत्यंत ही प्रायोगिक एवं सनातनी प्रतीक है।
स्वस्तिक को सीधे एवं सामान्य तौर पर कल्याणकारी यानी कल्याण के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। हमारे हिंदू धर्म में स्वस्तिक का प्रचलन आदिकाल से ही है। वैदिक काल में स्वस्तिक के होने के अनेकों प्रमाण मिलते हैं। माना जाता है कि हर शुभ कर्म हेतु वैदिक काल में स्वस्तिक का प्रयोग किया जाता था। साथ ही हर घर के बाहर दरवाजे के पास स्वस्तिक का निशान शुभ-लाभ के साथ अंकित किया जाता था।
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अगर इसके ऐतिहासिक प्रमाण की बात करें तो इतिहासकारों के अनुसार सिंधु घाटी की खुदाई के दौरान स्वस्तिक चिन्ह के प्रयोग के अनेकों प्रमाण मिले हैं। माना जाता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग सूर्य के उपासक थे एवं सूर्य का संबंध स्वास्तिक से जोड़ा जाता है। यही कारण है कि हड़प्पा सभ्यता में सूर्य की वजह से स्वस्तिका प्रचलन था।
स्वस्तिक के प्रयोग का प्रचलन ना केवल हिंदू धर्म में, अपितु बौद्ध तथा जैन धर्म में भी बहुतायात मिलता है। बुद्ध धर्म में स्वस्तिक को सौभाग्य का कारक माना जाता है। भगवान बुद्ध के शरीर के कई अंग पर स्वस्तिक के निशान अंकित किए जाते हैं। भगवान बुद्ध की मूर्ति में हथेली पर एवं हृदय भाग पर स्वस्तिक के निशान अंकित है।
इन सब के अतिरिक्त जैन धर्मी स्वस्तिक को अपने तीर्थों में से एक मानते हैं। जैन धर्म में स्वस्तिक की बहुत मान्यता है। इसे सातवा जिन का प्रतीक चिन्ह कहा जाता है जिसे अन्य तीर्थों में सुपार्श्वनाथ के नाम से संबोधित किया गया है। श्वेतांबर जैनियों द्वारा स्वस्तिक को अष्टमंगल का स्वरूप माना गया है।
स्वस्तिक का अर्थ कल्याण से हैं, स्वस्तिवाचन का अर्थ कल्याण की लिए वाचन, अर्थात प्रार्थना करने से हैं। स्वस्तिवाचन के माध्यम से सभी के कल्याण की प्रार्थना की जाती है। स्वस्तिवाचन स्वस्तिक के समान ही लाभकारी होता है। इसे स्वस्तिक का मंत्र भी कहा जाता है। इसका नित एक बार अवश्य पाठ करें ताकि आत्म-कल्याण के साथ-साथ लोक कल्याण भी होता रहे।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
स्वस्ति वाचन के मंत्र के अर्थ के संबंध में अलग-अलग तथ्य ज्ञात होते हैं, कहीं इसका वर्णन करते हुए यह कहा गया है कि स्वस्तिक के पूर्व की दिशा में वृद्धश्रवा इंद्र, वहीं दक्षिण की दिशा में बृहस्पति इंद्र, जबकि पश्चिम की दिशा में पूषा-विश्ववेदा एवं उत्तर की दिशा में अरिष्टनेमि इंद्र विराजित है।
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वहीं कुछ स्थानों पर श्लोक अर्थ का वर्णन कहा गया है कि हे महान यशस्वी देवराज इंद्र हमारा कल्याण कीजिए, विश्व के ज्ञान के मूल स्वरूप पूषा देव हमें कृतार्थ करें, हमारा कल्याण कीजिए, हे प्रबल हथियार के धारक गरुड़ देव हमारा मंगल कीजिए, हे बृहस्पति हमारे जीवन में शुभ मंगल को निहित कीजिए।
ऋग्वेद की ऋचायें
स्वास्तिक के संबंध में ऋग्वेद की ऋचाओं में यह उल्लेख मिलता है कि स्वास्तिक का चिन्ह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक चिन्ह है। इसे सूर्य के समकक्ष माना जाता है। यह सूर्य का प्रतीक चिन्ह है जिसकी चार भुजाएं संसार के मुख्य चार दिशाओं को प्रदर्शित करती है। इसके अतिरिक्त इन चार भुजाओं को अन्य रूपों में भी संबोधित किया गया है, कुछ स्थान पर स्वस्तिक की चार भुजाओं को ब्रह्मा जी के चार मुख के रूप में दर्शाया गया है, तो वहीं कुछ स्थान पर इसे चार वेदों का प्रतीक माना गया है। वेद के कुछ आयामों में इसकी चार भुजाओं को वैदिक काल में निहित चार वर्णों के रूप में दर्शाया गया है, तो कहीं चार युग का प्रतीक भी माना गया है। इसके अतिरिक्त स्वस्तिक के मध्य भाग जहां दोनों रेखाएं एक दूसरे का प्रतिच्छेदन करती है, उस क्षेत्र में भगवान श्री हरि विष्णु की नाभि को स्थापित माना जाता है।
स्वस्तिक का अनेकों उपमा एवं रूपक के रूप में प्रयोग किया गया है। इसे कल्याण, कुशल, मंगल शब्दों का सार माना जाता है।
भारतीय दर्शनों में स्वस्तिक
भारतीय दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की चार रेखाओं को चार वेद, चार पुरूषार्थ, चार आश्रम, चार लोक तथा चार देवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा गणेश से तुलना की गई हैं। जैन धर्म में स्वस्तिक उनके सातवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रतीक चिन्ह के रूप में लोकप्रिय है।
ऐसा माना जाता है कि ये रेखाएं, चार दिशाओं पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण को इंगित करती हैं। परन्तु हिन्दू मान्यताओं के अनुसार ये रेखाएं चार वेदों, ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ लोग ये भी मानते हैं कि ये चार रेखाएं संसार के रचियता भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती हैं।
अन्य ग्रंथ
स्वास्तिक की चार रेखाएँ पुरुषार्थ के चार तत्व, चार आश्रम व्यवस्था, चार देव अर्थात ब्रह्मा विष्णु महेश एवं गणेश, चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र), पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन सब की भी उपमा स्वरूप प्रयुक्त में आती है।
कुछ स्थानों पर यह वर्णन किया गया है कि स्वास्तिक के चारों ओर जब वक्र रेखाएं खींच दी जाती है, तो यह वास्तविक सूर्य के प्रकाश का प्रतिबिंब माना जाता है। सूर्य की किरणों के उत्सर्जन एवं उसकी गतिविधि को दर्शाता है।
स्वस्तिक का मध्य भाग पृथ्वी की दूरी को भी दर्शाता है जिसके सहारे पृथ्वी अपने घूर्णन काल को पूर्ण करती हैं ऐसा कुछ पुस्तकों में वर्णित है।
स्वास्तिक का महत्व ना सिर्फ आध्यात्मिक सनातनी क्रियाकलाप में होता है, अपितु इसका कुछ शुभ-अशुभ उपयोग तंत्र विद्या में भी होते हैं। तंत्रलोक में इसका वर्णन करते हुए यह कहा गया है कि सृष्टि की उत्पत्ति के गूढ़ रहस्य एवं आरंभ में नाद का अहम योगदान है। नाद से से ही वर्ण, वर्ण से ही शब्द तथा ब्रम्हांड की रचना हुई। नाद वाणी की सृजेता है। यह वाणी को चार रूप पश्यंती, मध्यमा, वैखरी आदि के रूप में बांटती है। तत्पश्चात इसे सूक्ष्म एवं स्थूल भागों में भी बांटा गया है। इन सबके मध्यस्थ ही स्वास्तिक का अर्थ एवं रहस्य छिपा हुआ माना जाता है।
तंत्र विद्या के अनुसार स्वस्तिक चिह्न का दो प्रकार से प्रयोग किया जाता है। यह दो रूपों में परिलक्षित होते हैं, जिसमें से एक शुभकारी तो दूसरा उतना ही अशुभकारी भी होता है।
प्रथम स्वस्तिक जो शुभकारी होता है, इसकी रेखाएं दाई ओर का झुकाव धारण करती है। इसे वास्तविक स्वास्थ्य माना जाता है, इसे ही 'स्वस्तिक' का नाम दिया गया है। जबकि दूसरी ओर अशुभकारी स्वस्तिक की मुड़ती हुई दिशाएं बाई और का रुख लेती हैं, जो कि अत्यंत ही अशुभकारी होती है। इस स्वस्तिक को वामवर्त स्वस्तिक के नाम से जाना जाता है। इसका प्रयोग प्रायः तंत्र विद्या में काली शक्तियों के जागरण एवं अशुभकारी प्रभाव को क्रियाशील करने हेतु दुष्ट प्रवृत्ति युक्त जन करते हैं।