सप्ताह के सात दिनों में प्रथम दिन अर्थात सोमवार अत्यंत महत्वपूर्ण है। सम्पूर्ण सप्ताह की भाग-दौड़ एवं थकावट को सप्ताहांत में आराम कर मिटाने के बाद, सोमवार के दिन प्रत्येक व्यक्ति में नई ऊर्जा एवं उत्साह पाया जाता है। सोमवार को भोले भंडारी का दिन भी कहते है तथा भक्त सोमवार को अर्धनारीश्वर शिव शम्भू की आराधना करते है। भोले भंडारी बहुत उदार स्वभाव के है एवं भक्तों पर अपनी कृपा दृष्टि सदैव बनाये रखते है।
शंकर जी त्रिनेत्र धरी है। इनको श्रष्टि का संघारक देवता भी कहा जाता है। यह त्रिदेवों में से एक हैं। जहाँ ब्रह्मा जी सत गुणी एवं विष्णु जी रजोगुणी है, महादेव तम गुण धरी है। यह भोले हैं तथा देवता या मनुष्य आदि कोई भी यदि इनका स्मरण करता है तो यह सदैव उनकी सहायता करते हैं। चाहे वो समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल विष को ग्रहण करना हो या रावण को सोने की लंका भेंट में देना। महादेव और देवी पार्वती को वैवाहिक कार्यों में सर्वाधिक आराध्य माना जाता है। मान्यता है कि सोमवार के दिन शिव जी की सच्चे मन से आराधना एवं व्रत रखने से भगवान् आपसे प्रसन्न होते हैं और आपको मनवांछित फल देते है। मान्यता है कि चैत्र नक्षत्र के सात सोमवार व्रत रखने से बाबा बर्फानी की असीम कृपा प्राप्त होती है।
पुराणों के अनुसार शिव शंकर को प्रसन्न करने वाले एवं भक्तों को मनवांछित फल दिलवाने वाले सोमवार व्रत ३ प्रकार के होते है।
1. सोलह सोमवार व्रत
कुवारी कन्या अगर मनवांछित वर की कामना करती है, तो उसे भोलेनाथ के १६ सोमवार के व्रत को करना चाहिए। इसके करने से उनको मनवांछित वर की प्राप्ति होती है।
2. सौम्य प्रदोष व्रत:
इसका व्रत त्रयोदशी को रखा जाता है। जिस जातक का चंद्र खराब होता है, वह इस व्रत को रखता है एवं भोले बाबा से सच्चे मन से प्रार्थना करता है। इस व्रत से चंद्र दोष दूर हो जाता है।
3. प्रति सोमवार व्रत:
भोले नाथ अपने सभी भक्तों की मनोकामना पूरी करते है। अपने जीवन में कष्टों एवं दुखों के छुटकारा पाने के लिए जातक को सोमवार का व्रत करना चाहिए।
मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं सोमवार व्रतं करिष्ये
सोमवार के व्रत में क्या करना चाहिए:
सोमवार के व्रत में क्या नहीं करना चाहिए
अमरपुर नाम की एक नगरी में एक बहुत ही अमीर व्यापारी रहा करता था। उसका व्यापार बहुत ही दूर-दूर के राज्यों तक फैला हुआ था। सब लोग उसका बहुत आदर करते थे। इतनी धन-दौलत और आदर होने के बावजूद भी वह व्यापारी खुश नहीं था क्योंकि वह निःसंतान था।
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वह सदैव बस एक ही तनाव में डूबा रहता था कि उसकी मृत्यु उपरान्त उसके इतने विशाल कारोबार एवं धन-संपत्ति का कौन ध्यान रखेगा। पुत्र रत्न प्राप्ति हेतु वह हर सोमवार भगवान भोले शंकर का व्रत-पूजा करता था एवं सायंकाल शिव मंदिर जाकर भगवान शंकर के सम्मुख घी का दीया भी जलाता था।
उसकी भक्ति देख एक दिन माँ पार्वती ने प्रभु भोले शंकर से आदरपूर्वक कहा: 'हे नाथ, यह व्यापारी कितने ही लम्बे समय से आपके सोमवार का व्रत और आपकी भक्ति कर रहा है। प्रभु, यह आपका सच्चा भक्त है, अतः आप इसकी मनोवांछित इच्छा जरूर संपन्न करें।'
तब भगवान् शंकर मंद मुस्कराहट के साथ बोले - 'हे पार्वती! इस सृष्टि के सभी जीवों को उनके कर्मानुसार ही फल मिलता है। मनुष्य जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है।' परन्तु पार्वती जी नहीं मानी और उन्होंने पुनः आग्रह करते हुए कहा- 'नहीं स्वामी! यह आपका परम भक्त है। यह प्रत्येक सोमवार आपके लिए विधिवत तौर पर व्रत और पूजा-अर्चना करता है। अतः आपको इसकी इच्छा की पूर्ति करनी ही पड़ेगी। आपको इसे संतान-प्राप्ति का वरदान प्रदान करना ही होगा।'
पार्वती के इतना अनुरोध करने पर प्रभु भोले बोले- 'प्रिय! तुम्हारे इतना अनुरोध करने पर मैं इसको पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूँ, परन्तु वह पुत्र अल्पायु होगा और केवल सोलह वर्ष की आयु पूरी होने तक ही जीवित रह सकेगा।'
ऐसा कह भगवान् भोले शंकर जी ने उसी रात उस व्यापारी को सपने में उसे दर्शन देकर पुत्र-प्राप्ति का आशीर्वाद दिया और उसे यह भी बताया कि उसकी यह संतान केवल सोलह वर्ष तक ही जीवित रहेगी।
भगवान् भोले भंडारी द्वारा वरदान प्राप्त कर व्यापारी अत्यन्त प्रसन्न हुआ, किन्तु पुत्र की कम आयु होने की बात जान उसकी प्रसन्नता खत्म हो गई। कुछ माह के बाद उसके घर एक बहुत ही सुंदर पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र के पैदा होने से घर में खुशियां तो आ गईं परन्तु उस व्यापारी को उसके जन्म की ज्यादा प्रसन्नता ना हो पाई क्योंकि वो अपने बेटे की कम आयु होने का राज जानता था जिसका ज्ञान घर में और किसी को भी नहीं था। पंडितों द्वारा उस संतान का नाम अमर रखा गया।
अमर जब 12 साल का हुआ तो उसे शिक्षा प्राप्ति हेतु वाराणसी भिजवाने का निर्णय लिया गया। वाराणसी तक पहुंचाने के लिए उस व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को चुना और उससे कहा कि वो अमर को सही-सलामत वाराणसी छोड़ आये। दीपचंद और अमर वाराणसी के लिए चल दिए। जाते हुए रास्ते में जहाँ भी अमर रात में आराम करने के लिए रुकता, वहीं वो हवन करता और पुरोहितों को भोजन कराता।
एक लंबी दूरी पूरी करने के पश्चात अमर एक राज्य में पहुंचा। उस राज्य की राजकुमारी की शादी की खुशी में पूरा राज्य सजा हुआ था। ठीक वक्त पर बारात राज्य में आ गई लेकिन दूल्हे का पिता बहुत अधिक चिंता में डूबा हुआ था क्योकि उसका पुत्र एक आंख से काना था। उसे भय था कि यदि राजा को इस बात की भनक लग गयी तो कहीं वह अपनी राजकुमारी से उसके पुत्र की शादी करने से मना न कर दे। ऐसे वो किसी को मुँह दिखने लायक नहीं रह पायेगा।
तभी उस वर के पिता की नजर अमर पर पड़ी। उसकी सुंदरता देख उसके मन में एक ख्याल आया कि क्यों न इस लड़के को वर बनाकर राजकुमारी से शादी करा दी जाए। शादी होने के पश्चात मैं इसको पैसा देकर यहाँ से रवाना कर दूंगा और राजकुमारी को अपने राज्य में ले आऊंगा।
तब दूल्हे के पिता ने अपना यह विचार अमर और उसके मामा दीपचंद के सम्मुख रखा। उसके मामा ने पैसा मिलने की ललक में दूल्हे के पिता की बात को मान लिया। तत्पश्चात अमर को वर के कपड़े पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से उसकी शादी करवा दी गई। राजा ने शादी के बाद ढेर सारी धन-दौलत देकर अपनी राजकुमारी को विदा कर दिया।
अमर जब वापिस लौट रहा था तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और वो यह सत्य छिपा नहीं पाया। उसने निकलने से पहले राजकुमारी की ओढ़नी पर एक सन्देश राजकुमारी के लिए लिख दिया की - 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारी शादी मेरे साथ हुई थी, मैं वाराणसी अपनी शिक्षा प्राप्ति हेतु जा रहा हूँ। अब तुम्हें जिस युवक की अर्धांगिनी बनना पड़ेगा, वो एक आँख से काना है।'
जैसे ही राजकुमारी की नजर अपनी ओढ़नी पर लिखे हुए सन्देश पर पड़ी, उसने उस काने युवक के साथ जाने से साफ मना कर दिया। राजा को जब ये सब पता चला तो उसने राजकुमारी को विदा करने की बजाय अपने महल में ही रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुँच गया। फिर अमर ने गुरुकुल में अपनी शिक्षा शुरू कर दी।
जब अमर ने आयु के सोलह वर्ष पुरे किये तो उसने एक विशाल यज्ञ करवाया। यज्ञ समाप्त होने पर उसने पुरोहितों आदि को आदरपूर्वक भोजन कराया साथ ही ढेर सारा अन्न, वस्त्र आदि दान किये। रात्रि के समय अमर अपने कर्म में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार सोते सोते ही अमर के प्राण निकल गए। अगली सुबह जब उसके मामा दीपचंद ने अमर को मृत पाया तो वो जोर-जोर से करुणा-विलाप में रोने लगा। वहाँ आसपास के लोग भी इकट्ठे होकर अपना दुःख जताने लगे।
दीपचंद के रोने-बिलखने की आवाज नजदीक से गुजर रहे भगवान भोले शंकर और माँ पार्वती ने भी सुनी। पार्वती जी ने भगवान से कहा- 'हे प्राणनाथ! मुझसे इस इंसान के रोने की आवाज नहीं बर्दाश्त हो पा रही है, कृपा कर आप इस इंसान की पीड़ा को दूर करें।'
भगवान शंकर जी ने माँ पार्वती के साथ दृश्यहीन स्वरुप में नजदीक जाकर अमर को देखा तो वे पार्वती जी से बोले- 'पार्वती! ये मृत युवक तो उस व्यापारी का बेटा है जिसे मैंने सोलह साल की उम्र का वरदान दिया था। आज इसकी उम्र पूरी हो गई इसलिए यह मर चूका है।'
यह जान तब माता पार्वती जी ने भगवान शिव से विनम्रतापूर्वक विनती किया- 'हे प्राण परमेश्वर! आप इस युवक को जीवित कर दें अन्यथा इसके माता-पिता अपने इस पुत्र की मौत के दुःख की वजह से रो-रोकर अपने जीवन को समाप्त कर लेंगे। इस युवक का पिता तो आपका परम भक्त है, और कई वर्षों से वो हर सोमवार का नित्य व्रत करते हुए आपकी आराधना कर रहा है।'
पार्वती द्वारा विनती करने पर प्रभु भोले शंकर ने अमर को वापिस जीवनदान दिया और कुछ ही क्षणों में वह जीवित हो गया। अपनी पढ़ाई पूरी कर अमर अपने मामा के साथ वापिस अपने नगर की तरफ चल पड़ा। चलते हुए वो दोनों उसी राज्य में पहुँच गए जहाँ की राजकुमारी के साथ अमर का विवाह संपन्न हुआ था। वह पहुँच कर उस राज्य में भी अमर ने एक यज्ञ व्यवस्थित किया।
नजदीक से गुजरते हुए नगर के राजा ने जब उस यज्ञ का आयोजन देखा तो उसने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ की समाप्ति पर राजा अमर और उसके मामा को अपने महल में ले आया और कुछ दिन तक उनकी आवभगत की। फिर बहुत-सा धन, वस्त्र इत्यादि देकर अपनी राजकुमारी के साथ उन्हें रवाना किया।
विदाई के समय रास्ते में उनकी रक्षा हेतु राजा ने अपने बहुत से सैनिकों को उनके साथ भेजा। दीपचंद और अमर जैसे ही अपने नगर पहुंचे, उन्होंने एक दूत को अपने घर भेजकर उनके आने का सन्देश भेजा। अपने पुत्र अमर के जीवित वापिस आने का सन्देश पाकर व्यापारी बेहद खुश हुआ।
व्यापारी और उसकी अपनी पत्नी ने स्वयं को एक कक्ष में बंद कर रखा था। बिना कुछ खाये-पीये वे दोनों अपनी संतान की राह देख रहे थे। उन्होंने कसम खा रखी थी कि यदि उन्हें अपने पुत्र की मौत की खबर प्राप्त हुई तो वे दोनों भी अपना जीवन समाप्त कर लेंगे।
दूत द्वारा दी गई खबर सुनकर प्रसन्नता के साथ व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के दरवाजे पर पहुँच गया। अपने पुत्र के विवाह का सन्देश सुन एवं उसकी पत्नी राजकुमारी चंद्रिका को देखकर वे दोनों बेहद खुश हुए। उस रात भगवान भोले शंकर दोबारा उस व्यापारी के सपने में आये और उससे कहा- 'हे प्राणी! मैंने तुम्हारे सोमवार के व्रत करने और इस दिन व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तुम्हारे पुत्र को लंबी आयु का वरदान दिया है।' यह सुन व्यापारी प्रसन्नचित्त हो गया।
सोमवार का नियमित व्रत करने से उस व्यापारी के घर की खुशियां वापिस लौट आईं थी। इसलिए शास्त्रों में विख्यात है कि जो भी महिला या पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत करते और व्रतकथा सुनते हैं, उनकी सारी मनोकामनाओं की पूर्ति होती हैं।