भारतीय पर्वों में से दीपावली का पर्व उत्सव व उत्साह का विलक्षण त्यौहार माना जाता है। यह दीपोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसमें हर घर में दिए जलते हैं, सारा हिंदुस्तान दिवाली के दिन जगमगा रहा होता है। यह पर्व सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अन्य कई देशों में भी मनाया जाता है। यह रोशनी का ऐसा पर्व है जो घर के कलह-क्लेश, दुर्गुणों आदि को समाप्त करता है साथ ही सुख, शांति एवं समृद्धि पूर्ण वातावरण उत्पन्न करता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी दिवाली अर्थात दीप जलाना पर्यावरण हेतु हितकारी माना जाता है। दीपावली खुशियों का जश्न है, सुख-समृद्धि का प्रतीक है। इस पर्व के पीछे अनेक प्रकार की पौराणिक व आध्यात्मिक कथाएं निहित है जिनमें से कुछ का वर्णन निम्नांकित है। तो आइए जानते हैं दिवाली पर्व के पीछे की विशेष मान्यताएं व कथाएं। साथ ही इस वर्ष के दिवाली पर हेतु ज्योतिषिय तिथि एवं गणना अनुसार शुभ मुहूर्त-
दीपावली का त्यौहार हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है। इस वर्ष 2021 में यह पर्व 4 नवम्बर दिन बृहस्पतिवार को मनाया जाना है।
अमावस्या तिथि आरम्भ:- 04 नवंबर प्रातः 06 बजकर 03 मिनट से
अमावस्या तिथि समाप्ति:- देर रात्रि 02 बजकर 44 मिनट (05 नवंबर 02:44 am)
शुभ मुहूर्त
प्रदोष काल आरम्भ:- शाम 05 बजकर 35 मिनट से
प्रदोष काल समाप्ति:- रात 08 बजकर 09 मिनट पर
लक्ष्मी पूजन मुहूर्त आरभ:- शाम 06 बजकर 10 मिनट से
लक्ष्मी पूजन मुहूर्त समाप्ति:- रात 08 बजकर 03 मिनट पर।
पूजन कालावधि:- 01 घंटा 54 मिनट
लक्ष्मी पूजा का चौघड़िया मुहूर्त
सबसे पहले हमारा यह जानना आवश्यक है कि आखिर चौघड़िया मुहूर्त क्या है? 24 मिनट को 1 घटी कहा जाता है। इन्हीं 4 घटी को मिलाकर चौघड़िया मुहूर्त बनता है जिसमें 96 मिनट होते हैं, अर्थात 1 घटी जिसमें लगभग 24 मिनट होते हैं, ऐसी ही 4 घटी को चौघड़िया मुहूर्त कहा जाता है।
चौघड़िया मुहूर्त को चतुर्श्तिका मुहूर्त के नाम से भी जाना जाता है। आइये अब हम जानते हैं कि इस बार की दीपावली पर होने वाली लक्ष्मी पूजा का चौघड़िया मुहूर्त।
बात त्रेता काल की है जब भगवान श्री रामचंद्र का पृथ्वी पर अवतरण हुआ था। तब श्री रामचंद्र के पिता महाराज दशरथ ने विधि के विधान अनुसार कैकई को दिए वचन का अनुगमन करते हुए उन्हें 14 वर्षों के लिए वनवास पर भेजते हैं।
वनवास के दौरान लंका नरेश रावण श्री रामचंद्र की पत्नी सीता का हरण कर लेता है जिन्हे छुड़ाने के लिए उन्हें रावण का वध करना पड़ता है। इस प्रकार श्री रामचंद्र जी बुराई पर विजय प्राप्त करते हैं और साथ ही अपने वनवास के 14 वर्ष भी पूर्ण करते हैं। अपने वनवास के 14 वर्ष पूर्ण करने के बाद वो वापिस अयोध्या नगरी में प्रवेश करते हैं। यह दिन कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या का होता है। उनके वापिस आने की खुशी एवं अपने नरेश के स्वागत के उपलक्ष में अयोध्या वासी में इस अमावस्या की रात को घी के दिया जला कर पूरी नगरी को प्रकाशित कर देते हैं और खुशियों का जश्न मनाते हैं। इसी दिन से हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को यह त्योहार दीपावली पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।
दिवाली से जुड़ी त्रेता काल की एक और घटना का शास्त्रों में वर्णन किया गया है। इसके अनुसार एक बार जब बाली देवराज इंद्र से परास्त हो गया तो वह डर कर अपने महल में गधे के रूप में छुप गया। तब उसे ढूंढते हुए देवराज इंद्र वहाँ आते हैं और उसे पहचान कर वार्तालाप करने लगते हैं। उसी दौरान कुछ क्षण बाद बाली के गधे वाले स्वरूप से एक स्त्री का प्रादुर्भाव होता है जिसे देख देवराज इंद्र अचंभित होकर उस स्त्री से पूछते हैं - देवी आप कौन हैं? तब उस स्त्री ने उत्तर दिया - मैं माता लक्ष्मी हूँ। मैं चंचल प्रकृति की हूँ। मैं कहीं भी स्थिर नहीं रह सकती। मेरा स्थायी निवास केवल वहाँ होगा जहां सत्य, निष्ठा, शांति व भक्ति होगी। इसके फलस्वरुप माता लक्ष्मी का प्रादुर्भाव भी दिवाली पर्व के दिन लक्ष्मी पूजन के रूप में होने लगा।
लक्ष्मी पूजा का महत्व
हिन्दू धार्मिक ग्रंथों की कथाओं के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण पक्ष में कार्तिक मास की अमावस्या को समुद्र मंथन के कारण माँ लक्ष्मी का आगमन हुआ था। ऐसा भी माना जाता है कि इस दिन ही लक्ष्मी माता का जन्मदिवस या जन्मदिन भी होता है और कई स्थानों पर तो इस दिन को माँ लक्ष्मी के जन्मदिवस के तौर पर मनाया जाता है।
हिन्दू धर्म के अनुसार ऐसी मान्यता है कि माँ लक्ष्मी की कृपा और उनके आशीर्वाद से घर में सुख-शान्ति तथा धन-समृद्धि बनी रहती है। कहा जाता है कि जिस भी घर में लक्ष्मी माता का वास नहीं होता है, वहाँ अशांति और दरिद्रता अपनी जगह बना लेती है जिससे घर में खुशियाँ नहीं रहती हैं, साथ ही किसी न किसी प्रकार की समस्या भी बनी रहती है। इसीलिए माँ लक्ष्मी को हमेशा प्रसन्न ही रखना चाहिए। माँ लक्ष्मी को प्रसन्न रखने के लिए ही उनकी विधिवत पूजा की जाती है। अतः लक्ष्मी माता की पूजा का इतना महत्वपूर्ण होने के पीछे यही कारण हैं।
दिवाली पर्व के दिन संध्या कालीन की आरती पश्चात पूरे घर में दीए जलाए जाते हैं। इस दिन माता लक्ष्मी जी पूजा आराधना की जाती है।
माँ लक्ष्मी की पूजा आराधना हेतु घर में कलश नारियल के साथ स्थापित करें। साथ ही घर के मुख्य द्वार पर स्वास्तिक अथवा उनका चिन्ह बनाएं जाते है। यह चिन्ह शुभ-लाभ का प्रतीक माना जाता है। यह समृद्धि का निमंत्रक भी होता है। संध्या कालीन बेला में घर, आसपास एवं आंतरिक ह्रदय सभी की स्वच्छता व शुद्धता कर पवित्र मन से कर्मकांड की विधि अनुसार सर्वप्रथम षोड्शौपचार पूजन करें। इसके पश्चात श्रीगणेश का पूजन कर लक्ष्मी पूजन करें। फिर मिष्ठान आदि का भोग लगाकर आरती कर पूजन कर्म को सम्पन्न करें।
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