हिन्दू धर्म में अनेक मान्यताओं , परम्परओं , त्योहारों , प्रथाओं के मध्य हर माह होने वाले एकादशी व्रत की भी जीवन में अधिक महत्ता है। प्रत्येक माह में दो पक्षों का योजन होता है जिसमे दोनों पक्षों के प्रथम दिन को एकादशी के रूप में मनाते हैं। इन्ही एकादशी को हम विभिन्न नामों से जानते हैं जैसे - कामिका एकादशी, देवशयनी एकादशी, पापमोचिनी एकादशी, योगिनी एकादशी, आदि। इन्ही के मध्य श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की पुत्रदा एकादशी का भी अधिक महत्व है जिसे श्रवण पुत्रदा एकादशी के नाम से भी जानते हैं।
यह मान्यता है कि इस एकादशी के अनुसरण मात्र से साधक के सभी पाप नष्ट हो जाते है व जीवन में सफलता की प्राप्ति होती है। इसके नाम स्वरुप जो भी साधक दाम्पत्य जीवन में संतान सुख से वंचित है, उनके लिए इस व्रत का अनुसरण करना अति आवश्यक है। इसके द्वारा जातक को निश्चित ही संतान पक्ष से सुख की प्राप्ति होगी व मोक्ष की प्राप्ति होगी। आइए जानते हैं पुत्रदा एकादशी व्रत की पौराणिक कथा।
महाभारत काल में एक बार ज्येष्ठ कुंती पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर ने देवकीनंदन श्री कृष्ण से यह प्रश्न किया कि - हे माधव ! कृपया मुझे श्रवण माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के बारे में विस्तार पूर्वक समझाइये। उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण कहते है कि - हे धर्मराज ! आपके द्वारा किया गया प्रश्न अति उत्तम है। यह प्रश्न जान कल्याण हेतु अति महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा जातक अपने द्वारा किये गए सभी पापों कुकर्मों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है व संतानहीन जातक को इस व्रत का अनुसरण अवश्य करना चाहिए। इस व्रत के फ़लस्वरूप जातक को अवश्य ही संतान की प्राप्ति होती है। इसलिए इस व्रत को हिन्दू धर्म में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इसके पश्चात श्री कृष्ण धर्मराज को विस्तार पूर्वक एक पौराणिक कथन को बताते हुए कहते है।
महाभारत काल के आरम्भ में महीजित नामक राजा, एक विशाल नगरी महिष्मति पर राज्य करता था। वो जीवन के तमाम सुखों का स्वामी था किन्तु वो अपने जीवन में संतान सुख से वंचित था जिसके कारण राजा व रानी दोनों ही बहुत चिंतित एवं दुखी रहते थे। वो बहुत ही कुशल व प्रजा का प्रिय राजा था, किन्तु संतान पक्ष से परेशान होने के कारण राजा का भी मन अपने कार्यभार में नहीं लगता था जिसके कारण प्रजा भी अपने प्रतिनिधित्वकर्ता को देख हताश रहती थी। राजा ने भी संतान प्राप्ति हेतु अनेकों उपाय किये, किन्तु उन्हें सभी जगह से निराशा ही हाथ लगी।
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एक दिन राजा ने अपनी सभा के सभी प्रतिनिधियों को बुलाकर अपने हृदय की व्यथा को व्यक्त किया कि - हे श्रेष्ट मंत्रीगण! आपने मेरा हर सुख-दुःख में मार्गदर्शन कर, मुझे हर परेशानी से पार पाने हेतु सहायता प्रदान की है। आप जानते हैं कि मैंने आज तक किसी पर भी अन्याय करने की चेष्टा नहीं की, न ही कभी किसी कुकृत्य कर इस धन सम्पदा को अर्जित किया है। मैंने सदा अपनी प्रजा का संतान के समान प्रेम-भाव से पालन-पोषण किया है एवं मैंने हमारे राज्य को धर्म की चादर ओढ़ाकर सभी कुकृत्यों व् कुभावनाओं से दूर रखने का हर संभव प्रयास किया है। किन्तु फिर भी मेरा यह दुर्भाग्य है कि मैं अपने जीवन में संतान सुख से वंचित हूँ जिसके कारण जीवन में अनंत सुखों के उपरांत भी इसमें अत्यंत पीड़ा का ही वास है, इसका क्या कारण है।
राजा की दशा को देखकर सभी मंत्रीगण एक वन में विचरण करने हेतु गए। वहाँ उनकी भेट जितात्मा, सनातन धर्म के ज्ञाता, सभी विद्याओं के ग्रहणी लोमश ऋषि से हुई। उन्हें देखकर सभी मंत्रीगण हर्ष से उनके चरण स्पर्श करने लगे। तत्पश्चात मुनिवर ने उन्हें उनसे पधारने का कारण व्यक्त करने को कहा। मंत्रीगण विनम्रता पूर्वक उन्हें अपने राजा की व्यथा को विस्तार पूर्वक बताते हुए कहते है कि हे मुनि ! हमारे राजा ने सम्पूर्ण राज्य में धर्म की स्थापना कर अपनी प्रजा का संतान सामान पालन पोषण किया है, किन्तु फिर भी वे पुत्रहीन हैं, इसका क्या कारण है?
लोमश ऋषि उनकी व्यथा सुनकर ध्यान स्थापित करने के उपरांत अपनी दिव्या दृष्टि के माध्यम से यह बताते हैं कि आपके राजा पुरातन काल में एक निर्धन व्यक्ति थे जिसके कारण उनका रहने व् खाने का कोई ठिकाना नहीं था। एक दिन वे बहुत प्यासे थे, उन्होंने पड़ोस के जलाशय में एक गौ माता को पानी पीते देखा। वे जल्दी से जाकर उस पानी पीती हुई गौ को हटा देते है व अधिक प्यासे होने के कारण स्वयं जल का स्वपान करने लगते हैं। उन्होंने उस जन्म में एक गौ को पानी पीने से वंचित कर दिया था, इसलिए ही उन्हें संतान वियोग का दुःख भोगना पड़ रहा है। यह सुनकर सभी मंत्रीगण व्याकुलता में यह प्रश्न करते हैं कि हे श्रेष्ठ, सर्वज्ञानी मुनि लोमश, जिस प्रकार हर ताले की चाबी होती है, हर परेशानी का कोई न कोई हल अवश्य होता है। इसी प्रकार इस पाप से मुक्त होने का भी कोई न कोई उपाय तो अवश्य होगा।
लोमश ऋषि उनकी बात सुनकर यह सुझाव देते है कि हे मंत्रीगण! आप अपने राजा से श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसको सामान्यतः पुत्रदा एकादशी के नाम से जानते हैं, उसका सह्रदय विधिवत रूप से अनुसरण करने को कहिये। इससे उन्हें अपने सभी पापों से मुक्ति प्राप्त होगी तथा जीवन में संतान सुख भी शोभायमान होगा।
लोमश ऋषि के आज्ञानुसार राजा महीजित ने विधिपूर्वक व्रत का अनुसरण कर भगवान् विष्णु जी की सह्रदय पूजा अर्चना की। उनके व्रत से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें सभी पापों से मुक्त कर दिया व जीवन के समस्त सुखों से पोषित कर दिया और व्रत के फलस्वरूप उन्हें एक हष्ट-पुष्ट पुत्ररत्न की भी प्राप्ति हुई। इस वजह से इस व्रत को हिन्दू धर्म में अधिक महत्ता प्रदान की गयी है।
ऐसी मान्यता है कि जो भी जातक इस व्रत का सहृदय विधिवत रूप से अनुसरण करता है, उस पर सदा इस सृष्टि के पालनकर्ता, मंगलकारी, कल्याण करता, सुख दुःख के दाता, आदि जगत के स्वामी भगवान् विष्णु की अनुकम्पा उसके साथ-साथ उसके परिवारजन पर भी विराजमान रहती है। जिस जातक को जीवन में संतान पक्ष की ओर से विभिन्न व्यवधानों का सामना करना पड़ रहा है, या फिर कोई दंपत्ति संतान सुख से वंचित है, उनके लिए इस व्रत का अनुसरण करना अति आवश्यक है। यह कहा जाता है कि जो भी दंपती जीवन में संतान की प्राप्ति हेतु ह्रदय से इस व्रत का अनुसरण करते हैं, उन्हें संतान सुख के साथ अन्य कई सुखों की भी प्राप्ति होती है। अथवा कोई भी साधक इस व्रत का विधान पूर्वक अनुसरण करता है, उसे अपने जीवन में किये गए सभी कुकृत्यों व् पापों से मुक्ति प्राप्त होती है, अतः मोक्ष की प्राप्ति होती है।
हर वर्ष श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को श्रावण पुत्रदा एकादशी के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष 2020 में 30 जुलाई, दिन गुरूवार के दिन श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत का आगमन होगा।
पुत्रदा एकादशी व्रत की शुभ तिथि का आरम्भ:- गुरुवार, 30 जुलाई 2020 01:17am से।
पुत्रदा एकादशी व्रत की शुभ तीथि का अंत:- 30 जुलाई अर्धरात्रि 11 बजकर 48 मिनट पर।
पारण (व्रत तोड़ने का समय):- शुक्रवार 31 जुलाई 2020 प्रातः 05 बजकर 44 मिनट से प्रातः 08 बजकर 24 मिनट तक।