वैश्वीकरण व आधुनिकरण के युग में उत्कृष्टता की ओर अपने पग पसारते वैज्ञानिकों का यही कहना है कि विज्ञान व अध्यात्म एक दूसरे के विध्वंसक नहीं, पूरक हैं। यदि हम अपनी सोच का स्तर व कद ऊंचा कर इस बारे में निष्पक्षता से सोचते हैं तो हमें यह ज्ञात होगा कि विज्ञान मानव को बाहरी जगत से सुख- सुविधा प्रदान कर व अध्यात्म मानव को अंतर्मन की शुद्धि देकर, पूर्णता प्रबल व सांसारिक जीवन की सुख-सुविधाओं का अनुसरण करने में दोनों ही अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। दोनों ही जगह ज्ञान का क्षेत्र अनंत है। आध्यात्मिकता के जरिए मानव प्रकृति से प्रेम करना सीखता है व विज्ञान कभी प्राणियों को जाति व धर्म के नाम पर नहीं बांटता है और यही अध्यात्म का असल अर्थ भी है।
अंततः हम कह सकते हैं कि अध्यात्म वह चाबी है जिसके सहारे मानवीय सत्ता की घड़ी के सभी कल पुर्जे घूमते हैं, आस्थाओं के अनुरूप मस्तिष्क कार्य करता है, मस्तिष्क के निर्देश पर शरीर चलता है, शरीर की हरकतें ही जीवन में परिस्थितियां उत्पन्न करती हैं और यह परिस्थितियां ही सुविधाएं व विपत्तियां बन कर सामने आती है। इन तथ्यों के अनुसार हम अनुमान लगा सकते हैं कि उल्टी परिस्थितियों को सुधारने हेतु मनुष्यों की गतिविधियां सज्जनोचित होनी चाहिए। किंतु यह सब तभी संभव है जब विचार-पद्धति व दृष्टिकोण का उत्कर्ष होता है। हमारे अंतर्मन में तनिक सी दुष्टता भी अगर विद्यमान है तो वह अवसर मिलते ही अपना परिचय देने लगती है। अतः अंतर्मन का स्नान ही ईश्वर रूपी प्राणों को दुष्टता से मुक्त सकता है। वही अंतर्मन का स्तर ऊंचा उठाने वाला विज्ञान ही अध्यात्म है।
प्राचीन काल में अध्यात्म के सहारे ही इस देश के नागरिक 'देव' संज्ञा में पहुंच गए। हमारे पूर्वजों ने अपने आध्यात्मिक अनुभवों से समस्त संसार में शांति स्थापित कर, सुसंपन्न व सुसंस्कृत बनाने में महान योगदान दिया था। आज की विपत्तियों और समस्याओं का चिरस्थायी समाधान अध्यात्म को अपनाने में ही है। उसी के सहारे संपूर्ण जगत का भविष्य उज्जवल हो सकता है।